
नई दिल्ली: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मंगलवार को एक दिलचस्प मामला सुना जिसने सोशल मीडिया और डिजिटल अधिकारों पर नई बहस छेड़ दी है। दिल्ली की एक महिला डॉक्टर ने दावा किया था कि WhatsApp का इस्तेमाल उसके लिए आवश्यक है और इसका बंद होना उसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि WhatsApp जैसी निजी सेवा तक पहुंच संविधान के तहत कोई मौलिक अधिकार नहीं है।
डॉक्टर ने अदालत में कहा कि WhatsApp पर उनका अकाउंट अचानक बंद कर दिया गया जिससे वे अपने मरीजों और सहयोगियों से संपर्क नहीं कर पा रही हैं। उनका तर्क था कि यह उनके पेशेवर और व्यक्तिगत जीवन पर सीधा असर डालता है। अदालत ने इस पर पूछा कि आखिर किसी निजी कंपनी की सेवा को मौलिक अधिकार कैसे कहा जा सकता है।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि WhatsApp एक निजी प्लेटफॉर्म है और उपयोगकर्ताओं ने स्वेच्छा से इसकी शर्तों को स्वीकार किया है। अदालत ने यह भी जोड़ा कि यदि किसी उपयोगकर्ता को लगता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है तो वह नागरिक अदालत या उपभोक्ता आयोग का दरवाजा खटखटा सकता है, लेकिन संविधान की धारा 32 के तहत ऐसी याचिका दायर नहीं की जा सकती।
कोर्ट ने दिया भारतीय ऐप का सुझाव
सुनवाई के दौरान जब डॉक्टर की ओर से कहा गया कि WhatsApp उनके पेशे का अहम हिस्सा है, तो न्यायालय ने हल्के लेकिन सारगर्भित अंदाज में कहा कि वे भारत में बने ऐप्स का उपयोग कर सकती हैं। अदालत ने खासतौर पर Zoho के Arattai ऐप का नाम लिया और कहा कि यह भी एक संवाद माध्यम है जो भारतीय उपयोगकर्ताओं के लिए बनाया गया है।
अदालत का यह बयान भले ही सलाह के रूप में दिया गया हो लेकिन यह देश में डिजिटल आत्मनिर्भरता के संदेश के रूप में देखा जा रहा है। Arattai एक भारतीय मैसेजिंग एप्लिकेशन है जिसमें चैट, कॉलिंग और मीडिया शेयरिंग जैसी सुविधाएं मौजूद हैं। Zoho कंपनी का दावा है कि यह ऐप भारतीय डेटा सुरक्षा मानकों के अनुसार विकसित किया गया है।
कानूनी दृष्टिकोण और बहस
इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि किसी निजी कंपनी की डिजिटल सेवा को संविधान की सुरक्षा के दायरे में नहीं लाया जा सकता। अदालत ने कहा कि मौलिक अधिकार केवल राज्य या सरकारी कार्रवाई पर लागू होते हैं, न कि किसी निजी प्लेटफॉर्म की सेवा शर्तों पर।
कई कानूनी विशेषज्ञों ने भी कोर्ट के इस निर्णय को तार्किक बताया है। उनका कहना है कि निजी कंपनियों पर संवैधानिक दायित्व लागू करना व्यावहारिक नहीं है। हालांकि विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि डिजिटल प्लेटफार्मों के लिए एक मजबूत उपभोक्ता सुरक्षा तंत्र की आवश्यकता है ताकि किसी उपयोगकर्ता का अकाउंट मनमाने ढंग से बंद न किया जा सके।
सोशल मीडिया पर चर्चा
फैसले के बाद सोशल मीडिया पर भी इस मुद्दे पर जोरदार बहस छिड़ गई। कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के रुख का स्वागत किया और कहा कि भारत को अपने स्वदेशी विकल्पों को बढ़ावा देना चाहिए। वहीं कुछ उपयोगकर्ताओं ने यह सवाल उठाया कि क्या सरकार को ऐसे प्लेटफार्मों के लिए नियम तय नहीं करने चाहिए ताकि उपयोगकर्ताओं के साथ मनमानी न हो।
कई लोगों ने Arattai ऐप को डाउनलोड करना शुरू कर दिया और सोशल मीडिया पर इसकी तुलना WhatsApp से करने लगे। कुछ ने कहा कि अगर यह ऐप बेहतर साबित हुआ तो भारत के लिए यह बड़ा कदम हो सकता है।
आगे का रास्ता
यह मामला भले ही एक डॉक्टर के अकाउंट ब्लॉक होने से शुरू हुआ हो, लेकिन इसने देशभर में डिजिटल अधिकारों और निजी प्लेटफार्मों की जवाबदेही पर बड़ी बहस को जन्म दिया है। कोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए यह जरूर कहा कि नागरिक कानून के तहत उचित कार्रवाई की जा सकती है, लेकिन किसी निजी सेवा को मौलिक अधिकार नहीं कहा जा सकता।
यह फैसला भविष्य में ऐसे कई मामलों की दिशा तय करेगा जहां लोग डिजिटल प्लेटफार्मों पर अपने अधिकारों को लेकर अदालत की शरण में जाते हैं। साथ ही, यह भारतीय ऐप डेवलपर्स के लिए भी एक मौका है कि वे अधिक सुरक्षित, पारदर्शी और भरोसेमंद प्लेटफॉर्म बनाएं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर सकें।
अंततः इस पूरे विवाद से जो संदेश निकलता है, वह साफ है: इंटरनेट पर संवाद का अधिकार ज़रूर है, लेकिन किसी एक ऐप या प्लेटफॉर्म तक पहुंच को मौलिक अधिकार नहीं कहा जा सकता। डिजिटल युग में स्वतंत्रता का अर्थ है विकल्पों की उपलब्धता, और भारत अब अपने विकल्प खुद बना रहा है।